उत्तराखंड से आज ये खबर नही देखी तो फिर क्या देखा क्यो हुए ये  122 रणबांकुरे घायल , प्राथमिक उपचार के बाद छुट्टी दे दी गई। 

उत्तराखंड से आज ये खबर नही देखी तो फिर क्या देखा क्यो हुए ये  122 रणबांकुरे घायल , प्राथमिक उपचार के बाद छुट्टी दे दी गई।


देवभूमि उत्तराखंड को ऐसे ही नही कहा जाता है यह हर जगह देवी देवताओं का वास है , हर जगह का अपना महत्व है , अपनी अपनी सालो साल से चली आ रही पारम्परिक रीति रिवाज है तो अलग अलग जगह की अलग अलग मान्यता
बता दे कि आज के दिन ही चंपावत जिले के बाराही धाम देवीधूरा में ऐतिहासिक बगवाल खेली जाती है और आज इस बार की बग्वाल लगभग दस मिनट तक चली जिसमे इस  बगवाल युद्ध में लगभग 122 रणबांकुरे घायल हुए।ओर इस  बगवाल में चार खाम और सात थोकों रणबांकुरों ने जमकर प्रतिभाग किया।
जी हां चंपावत जिले के बाराही धाम देवीधुरा में आज खोलीखाड़ दुर्बाचौड़ मैदान में खेली गई ऐतिहासिक बगवाल के हजारों लोग साक्षी बने बता दे कि लगभग दस मिनट तक चले बगवाल युद्ध में 122 लोग घायल हुए, जिन्हें प्राथमिक उपचार के बाद छुट्टी दे दी गई।  वही इस ऐतिहासिक बगवाल को देखने के लिए पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री और सांसद अजय टम्टा, विधायक पूरन सिंह फर्त्याल, राम सिंह कैंडा सहित सैकड़ों लोग शामिल रहे।

ये  है मान्यता

देवीधुरा का बगवाल यहां के लोगों की धार्मिक मान्यता का पवित्र रूप है। किंवदंती है कि एक वृद्धा के पौत्र का जीवन बचाने के लिए यहां के चारों खामों की विभिन्न जातियों के लोग आपस में युद्ध कर एक मानव के रक्त के बराबर खून बहाते हैं। क्षेत्र में रहने वाली विभिन्न जातियों में से चार प्रमुख खामों चम्याल, वालिक, गहरवाल और लमगडिय़ा के लोग पूर्णिमा के दिन पूजा अर्चना कर एक दूसरे को बगवाल का निमंत्रण देते हैं। कहा जाता है कि पूर्व में यहां नरबलि देने की प्रथा थी, लेकिन जब चम्याल खाम की एक वृद्धा के एकमात्र पौत्र की बलि देने की बारी आई तो वंश नाश के डर से उसने मां बाराही की तपस्या की। माता के प्रसन्न होने पर वृद्धा की सलाह पर चारों खामों के मुखियाओं ने आपस में युद्ध कर एक मानव के बराबर रक्त बहाकर कर पूजा करने की बात स्वीकार ली, तभी से ही बगवाल का सिलसिला चला आ रहा है।
स्वयं को बचाकर दूसरे पर वार करना है बगवाल
चंपावत। बगवाल में भाग लेने के लिए रणबांकुरों को विशेष तैयारियां करनी होती हैं। बगवाल लाठी और रिंगाल की बनी ढालों से खेली जाती है। स्वयं को बचाकर दूसरे दल की ओर से फेंके गए फल, फूल या पत्थर को फिर से दूसरी ओर फेंकना ही बगवाल कहलाता है।
अब फल और फूलों से खेली जाती है बगवाल
चंपावत। अतीत से ही आषाड़ी कौतिक के नाम से मशहूर देवीधुरा की बगवाल को देखने देश-विदेश के हजारों पर्यटक और श्रद्धालु देवीधुरा पहुंचते हैं। पांच वर्ष पूर्व तक बगवाल पत्थरों से खेली जाती थी, लेकिन हाईकोर्ट के रोक लगाने के बाद अब फल और फूलों से बगवाल युद्ध लड़ा जा रहा है।

माँ वाराही देवी का मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित देवीधुरा कस्बे में स्थित है.  देवीधुरा चंपावत जिले में स्थित है. माँ वाराही का मंदिर 52 पीठों में से एक माना जाता है. देवीधुरा स्थित शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर पर्वत श्रंखलाओं के बीच स्थित है. मंदिर के चारों ओर देवदार के उँचे-उँचे पेड़ मंदिर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं. माँ वाराही का मंदिर अपनी नेसर्गिक सुंदरता और प्राचीन मान्यताओ के लिए प्रसिद्ध है. माँ वाराही का यह मंदिर समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर की उँचाई पर स्थित है. मां वाराही धाम, रक्षाबंधन के दिन (श्रावणी पूर्णिमा) होने वाले पत्थरमार युद्ध के लिए प्रसिद्ध है जिसे स्थानीय भाषा में “बग्वाल” कहा जाता है.

वाराही देवी मंदिर देवीधुरा का इतिहास

माँ वाराही देवी मंदिर का इतिहास बहुत ही पुराना और पौराणिक है. इतिहासकारों के अनुसार चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ स्थापना की गयी और चंपा देवी और लाल जीभ वाली महाकाली की मूर्ति स्थापित की गयी. सिद्ध पीठ के आसपास बसे “महर” और “फर्त्यालो” द्वारा बारी-बारी से हर साल नर बलि दी जाती थी. “महर” और”फर्त्याल” एक तरह की लोकल जाति हैं जो यहाँ के रहने वाले लोग अपने नाम में जोड़ते हैं.  इतिहासकारों के अनुसार रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक गुफा में छुपाकर स्थापित कर दिया था और बाद में यहीं पर देवी की पूजा अर्चना करना शुरू कर दिया था. धीरे धीरे लोगों की आस्था बढ़ने और माँ बारही द्वारा उनकी हर मन्नत पूरी करने से यहाँ लोगों की आस्था बढ़ती चली गयी.

माँ वाराही देवी मंदिर के मंदिर की मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है की महाभारत काल में यहाँ पर पाण्डवों ने वास किया था और पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी. ये शिलायें ग्रेनाइट की बनी हुई थी और इन्ही शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के द्वार के निकट मौजूद हैं. इन दोनों शिलाओं में से एक को “राम शिला” कहा जाता है और इस स्थान पर “पचीसी” नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं. और दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं.

देवीधुरा मंदिर की मान्यताये

मंदिर के गुफा प्रवेश द्वार पर दो विशाल और सकरी चट्टानें हैं जिनके बीच से निकले के लिए बहुत ही कम जगह है. दोनो चट्टानों के मध्य के खाली जगह पर ही “देवी पीठ” है.  माँ वाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां वाराही देवी की मूर्ति है. माँ वाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है क्युकी मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है. इसी कारण “देवी की मूर्ति” को ताम्रपेटिका में रखी जाती है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here