राज्य के मुख्यमंत्री 16 करोड से अधिक मूल्य के सीएम आवास में रहते है जो हर सुविधाओं से भरा हुवा है, तो राज्य के मंत्री भी करोड़ो की लागत से बने बंगले में निवास करते है और आने जाने के लिए लग्ज़री कार है ।तो प्रोटकाल भी पूरा । ठीक भी है होना चईये जरूरी है । पर मे ये सोच रहा हूं कि जिनकी वजह से जिनके वोट की बदौलत आप यहा तक पहुचते है ।आप फिर उन लोगो को क्यो भूल जाते हो ? क्यो नही दिखता इनको जनता का वो दर्द, क्यो मर जाते है आपके किये वो वादे, जो चुनाव से पहले होते है। क्यो आप हकीकत से मुंह मोड़ लेतो हो। क्यो आपके पास हर बात के जवाब के रूप सिर्फ बहाने है। काम क्यो धरातल पर नही होता। आपको दर्द भरी तस्वीरों ओर हकीकत से रूबरू कराते है
यहा पिथौरगढ़ के नाचनी में रहने वाले मेरे पहाड़ी लोगो की जिंदगी खतरे में है। यहां पुल बहने के बाद से ही लोग गरारी की रस्सी खींचकर अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं। जिससे कभी भी कोर्इ बड़ा हादसा हो सकता है। . पर इनके रहुनामो बनने का दावा करने वालो को कोई सरोकार नही।
यहा हर पल रस्सी पर ‘जिंदगी’ झूल रही है , साँसे कभी तेज़ तो कभी बिल्कुल शांत सी होने लगती है आपको बता दे यहां तीन महीने पहले आपदा में पुल बह गया था। जिसके बाद से ही शासन राहत इंतजामों के दावे कर रहा है और प्रशासन को इंतजार बजट का है। हद हो गई डबल इज़न की सरकार मे भी बजट का रोना।
ओर जिसका खामियाजा बागेश्वर जनपद के चार गांवों के पांच दर्जन बच्चे, उनके अभिभावक और क्षेत्र के आम लोग भुगत रहे हैं। नाचनी में पढ़ने वाले अपने बच्चों को विद्यालय भेजने के लिए हर माँ रोज छह से 12 किमी पैदल चल कर रामगंगा नदी पर लगी गरारी की रस्सी खींचने के लिए जाती हैं, ताकि उनके बच्चे स्कूल तक पहुंच सकें। कुछ समझ मे आया मेरी सरकार उत्तराखंड की सरकार ।नही आएगा क्योकि सरकार को दर्द नही होता क्यो?
आपको बता दे कि नाचनी से होकर बहने वाली रामगंगा नदी के दूसरा छोर बागेश्वर जिले का हिस्सा है। यानी यह नदी पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले की सीमा है। इस क्षेत्र के चार गांव कालापैर काभड़ी, भकुंडा, पालनधूरा और केंचुवा का सीधा संपर्क पिथौरागढ़ जिले के नाचनी से है। इन गांवों के बच्चों को पिथौरागढ़ जिले के नाचनी में नर्सरी से इंटर तक पढ़ने के लिए आना-जाना होता है। पांच दर्जन बच्चे नाचनी के पब्लिक स्कूलों, सरस्वती शिशु मंदिर और राइंका में पढ़ने आते हैं। पर इनके दुःखों से किसी को क्या मतलब
आपको बता दे कि राम गंगा नदी में आवाजाही के लिए दो जिलों को जोड़ने वाला झूला पुल 11 जुलाई को बादल फटने से ऊफनाई राम गंगा नदी में बह गया। तब से यहां वैकल्पिक व्यवस्था के लिए लगाई गई ट्राली यानी गरारी ही सहारा है। जो रस्सी के सहारे चलती है। इसकी रस्सी को खींचकर ही आवाजाही हो सकती है।
वही पूर्व प्रधान एवं समाज सेवी लक्ष्मी दत्त पाठक का कहना है कि पिछले तीन माह से से नौनिहाल जान खतरे में डालकर शिक्षा ग्रहण करने जा रहे हैं। कई घरों में पुरुष बाहर होते हैं, वहां महिलाएं बच्चों को नदी पार कराने के लिए आती-जाती हैं। कार्य के बोझ से दबी ग्रामीण महिलाओं को अपने घर व खेत के अन्य कार्य छोड़कर गरारी की रस्सी खींचने में ही काफी समय खर्च करना पड़ रहा है। कम से कम इस मामले संवेदनशीलता दिखाते हुए क्षतिग्रस्त पुल का निर्माण प्राथमिकता से होना चाहिए।
आपको बता दे कि कोई ये हालात सिर्फ यही के ही नही है बल्कि उत्तराखंड के कर्इ जिलों में भी हैं। जहां पुल बहने के बाद से लोग ट्रॉली के सहारे जान जोखिम में डालकर आवाजाही करते हैं। इसके चलते कर्इ दुर्घटनाएं भी हो चुकी है। बात उत्तरकाशी की करें तो यहां भी रस्सी-ट्रॉली के सहारे जिंदगी चल रही है।
आपको बता दे कि उत्तरकाशी जिले के 15 से अधिक गांवों को रस्सी-ट्रॉलियों के झंझट से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। ट्रॉलियों में हादसे होते जा रहे हैं और तंत्र बेखबर बना हुआ। पिछले पांच सालों के दौरान उत्तरकाशी जनपद में ट्रॉली से गिरने वाले दर्जनों हादसे हो चुके हैं। इन ट्रॉलियों के स्थान पर स्थाई समाधान नहीं हुए। नतीजा, आज भी 15 से अधिक गांव के ग्रामीणों को नदी पार करने के लिए स्वयं बनाई अस्थायी कच्ची पुलिया और रस्सी-ट्रॉलियों का सहारा लेना पड़ रहा है।
उत्तरकाशी जिले की गंगा व यमुना घाटी में विकास के लिए लोग लंबे समय से तरस रहे हैं। कुछ सुविधाएं ग्रामीणों को मिल रही थी तो वह वर्ष 2012 व 2013 की आपदा ने छीनी। जनपद के छोटे-बड़े 16 से पुल बह गए थे। इनमें से संगमचट्टी में एक छोटा पैदल पुल, डिगिला में बेली ब्रिज, बनचौरा, बड़ेथी, अठाली, जोशियाड़ा व उत्तरो, डिडसारी में झूलापुल तो बनकर तैयार हो गए हैं, लेकिन शेष पुलों पर या तो आधा-अधूरा कार्य हुआ अथवा हुआ ही नहीं।
इसके चलते 15 से अधिक गांवों के ग्रामीणों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। चामकोट, खरादी, नलूणा, ठकराल पट्टी के गौल, फूलधार, कुर्सिल, स्याबा, नगाणगांव, मशालगांव, सुंकण, थान आदि गांवों के लोग तो 2012 से रस्सी व ट्रॉलियों के सहारे ही नदियों को पार कर रहे हैं। गजोली-भंकोली, सटूड़ी, हलारा गाड़, खेड़ाघाटी व बाडिया में बने अस्थायी पुल भी हर बरसात में बह जाते हैं। सो, ग्रामीणों को फिर ट्रॉली का सहारा लेना पड़ता है।
अब आप ही बताये क्या बोले हम ओर क्या कहे सरकार को हमसे तो पहाड़ का ये दर्द देखा नही जाता एक तरफ पलायन बढ़ता जा रहा है पहाड़ खाली होते जा रहे है । कही ये सब भी बढ़ते पलायन का कारण नही, भाई पहाड़ में अच्छी शिक्षा नही , स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह लाचार, रोजगार का नाम भी नही, खेती को जंगली जानवरों ने चौपट कर डाला, कही सड़क नही, कही पूल नही , तो बाघ भी अब पहाड़ के लोगो के जनावरो के साथ अब उन लोगो को भी अपना निवाला बना रहा है। दैवीय आपदा मौत बनकर सर पर हर बरसात में खड़ी रहती है, अब बताओ सरकार क्या करोगे पहाड़ के लोगो के लिए ।जो कुछ आपके हाथ में है आप उसे भी समय पर नही कर पा रहे है या करना ही नही चाहते या फिर आपके कुछ अधिकारी पहाड़ विरोधी है जिनको पहाड़ का दर्द ही नही दिखता ।
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत जी आप सबसे भाग्यशाली मुख्यमंत्री है कि आपको हर तरफ से पूरा बहुमत है फ़िर वो जनंता हो , या आपका हाईकमान , आपके राजनीतिक विरोधी भले ही कुछ भी षडयंत्र कर ले लेकिन आपका कुछ नही कर सकते ।इसलिए हम तो यही कहेंगे कि इन सब के बीच भी अगर आप गढ़वाल के लोगो का दर्द दूर ना कर सके तो ये पहाड़ की जनता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा ।