
एक था आशुतोष
– लापरवाह, मस्तमौला, मिलनसार, सोने सा दिलवाला
– पितृ देवताओ अब वह तुम्हारी शरण में है, उसे खूब स्नेह देना
वर्ष 2015 की बात है। उन दिनों मैं राष्ट्रीय सहारा में था। मेरे साथी ने एक युवक से मिलवाया। नाम था आशुतोष। कहा, यह एक मैग्जीन निकलाता है और इसका संपादन आपको करना है। मैंने उसे मैग्जीन दिखाने को कहा, प्रेमांजली। मैं हंसा, बोला, मैं इस मैग्जीन को संपादित नहीं कर सकता। आशुतोष ने पूछा, क्यों भैजी? मैंने कहा कि मैग्जीन के नाम में व्याकरण की गलती है। वो बोला, आरएनआई की गलती है। ये मेरी मां का नाम है। मां के प्रति उसकी भावना देख मैं तैयार हो गया। संपादन का मेहनताना तय हुआ तो मेरी हंसी छूट गयी। दो हजार रुपये। मुझे हंसते देख कहने लगा, भैजी मैग्जीन चल निकलेगी तो और दे दूंगा। यह उसका व्यवहार था कि मैं तैयार हो गया। मैग्जीन हर माह देर-सवेर निकलती। दो हजार मेहनताना कभी मिलता कभी नहीं। मैं गुस्सा करता कि दो हजार भी नहीं दे पा रहा, तो चला क्यों रहा है? वह हंस जाता। उसकी निश्छल हंसी देख मैं पसीज जाता। बाद में पत्रिका अनियमित हो गयी। वो हरिद्वार सांसद निशंक का प्रतिनिधि बन गया। मुझे लगा कि निशंक जी कुछ दे रहे होंगे। लेकिन वो निशंक प्रेम से ही ग्रस्त रहा। शादी हो गयी, बेटा भी हो गया। मैंने उसे कई बार समझाया, कई बार डांटा कि तय तो कर, क्या करना है जीवन में। वो भविष्य की योजनाएं गिना देता।
जब निशंक केंद्र में मंत्री बने तो मैंने निशंक के गांव जाकर एक स्टोरी की। उत्तरजन टुडे में कवर स्टोरी छापी थी पिनानी गांव की बदहाली की। तो वो मुझसे नाराज हो गया कि निशंक के खिलाफ क्यों लिखा? मैंने कहा कि निशंक तुझे कुछ देता है क्या? तू ऐसा कर अभी मौका है, उसके साथ पीआरओ या मीडिया टीम में जुड़ जा। नियमित वेतन मिलेगा। लेकिन संभवतः निशंक ने उसे भाव ही नहीं दिया होगा। क्योंकि नेता कहां अपने समर्थकों की सुनते हैं या मानते है या उनके भला सोचते हैं। वह मेरी बात सुनता, डांट भी सहता पर हंसकर टाल देता। वो राजनीति की पगडंडी पर चलना चाहता था लेकिन हलके-हलके। उसकी और मेरी अक्सर झड़प होती। वह कहता, भैजी जिस तरह से कड़वा लिखते हो न आप किसी दिन जेल जाओगे, या बुढ़ापे में पिट जाओगे? फिर जोर से हंसता, मां कसम भैजी, आपका लिखा पढ़ता हूं। मैं आशुतोष को इसलिए पसंद करता कि वह मीठा बोलता था। डांट भी सुन लेता था। जब बुलाओ तो हाजिर। हर कदम पर साथ देने के लिए तैयार।
कोरोना काल में उसने अनपूर्णा ग्रुप बनाया। सैकड़ों लोगों को भोजन कराता। शायद उसका ग्रुप ही एकमात्र ऐसा ग्रुप था जो कि जरूरतमंद लोगों के बच्चों के लिए दूध उपलब्ध करा रहा था। वो मुझे अक्सर रिपोर्ट देता। शिकायती लहते में कहता, भैजी, आपके भागीदारी अभियान में तो मुझे जगह नहीं मिलती। भागीदारी अभियान के तहत उन दिनों वर्षा सिंह रोजाना रात को साढे़ आठ बजे फेसबुक पर लाइव बुलटिन पढ़ती थी। मैंने कई बार आशुतोष को बुलटिन में शामिल किया। वो पागल हमेशा ही जनहित के मुद्दों पर जूझता रहा। समाज के लिए सपने देखता रहा। अपने परिवार से बेइंतहा प्यार करता था वो।
पिता के रिटायरमेंट के बाद ही उसकी योजनाओं पर सोचकर अब अश्रुमिश्रित हंसी आ रही है। मनुष्य क्या-क्या सोचता है, क्या-क्या योजनाएं बनाता है लेकिन होता तो वही है जो ईश्वर को मंजूर होता है। आशुतोष की आकास्मिक मौत से स्तब्ध हूं। विश्वास नहंी हो रहा था कि अब वो नहीं रहा। रात दो बार उठा और दोनों ही बार उसका हंसता चेहरा आंखों के सामने कौंध गया। हां, आशुतोष जैसे अच्छे लोगों की वहां भी जरूरत है, इसलिए ईश्वर ने उसे अपने पास बुला लिया। मैं उसकी आत्मा की शांति की कामना करता हूं और परिजनों को इस असीम दुख को सहने की शक्ति देने की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। पितृ देवताओ, आप अब उसका ध्यान रखना। आशुतोष तुम मेरी स्मृतियों में हमेशा जीवित रहोगे।
वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जी की कलम से
ओर ऐसे ही उत्तराखंड में हर पत्रकार के दिल में दिमाग़ में
आशुतोष ने अपनी एक छाप छोड़ रखी है
बहराल बोलता है उत्तराखंड
की आशुतोष ममगई ने तो अपने जीवित रहते हुए अपना फर्ज निभाया है उन राजनेताओं के प्रति, भाजपा पार्टी के प्रति, कार्यकर्ताओं के प्रति , हम पत्रकार साथियों के प्रति
अब बारी उन सभी की है हम सबकी है कि आशुतोष के जाने के बाद अब हम अपना फर्ज निभाएं उनकी धर्मपत्नी उनका 2 साल का बच्चा उनके माता-पिता का कैसे रखना है ख्याल
कैसे उनका घर चले ,
कैसे उनकी आर्थिक स्थिति आने वाले समय में ठीक हो,
कैसे उनके घर के दीपक 2 साल के छोटे आशुतोष का हो पालन पोषण?? ये सवाल तब तक जिंदा रहेंगे जब तक उनके परिवार के रोजगार के बारे कोई स्थाई रास्ता नही निकलता
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी इस दुःखद समाचार पर गहरा दुःख जताया है