बचाओ-बचाओ कल रात अचानक मेरी नींद खुली, मैं बचाओ-2 चिल्ला रहा था।

बचाओ-बचाओ कल रात अचानक मेरी नींद खुली, मैं बचाओ-2 चिल्ला रहा था।

बचाओ-बचाओ

कल रात अचानक मेरी नींद खुली, मैं बचाओ-2 चिल्ला रहा था। सपने में मुझे लगा कि, मैं आग की लपटों में घिरा हुआ हॅू। यह सपना मुझे यूं ही नहीं आया। मैं कुछ दिन पहले मोहनरी अपने गाॅंव गया था। बड़ी शान्ति, बड़ा शकुन था। अचानक एक दिन मेरे गाॅव के नीचे चीड़ के झुरमुट में आग लग गई। चीड़ का यह झुरमुट हमारे नाप खेतों व उससे लगे हुये वैरान भूमि में है। आग दिन में लगी, सबने मिलकर बुझा दी। मुझे भाईयों ने बताया कि, कुछ दिन पहले भी इसके बगल में आग लगी थी, वह आग लोगों के घरों तक आ गई थी। दिन में गाॅव के नीचे आग थी, तो शाम को गाॅव के ऊपर का सुन्दर जंगल जल रहा था। गर्मियों में सुहावना पहाड़ी गाॅव, अब डरावना बन रहा है। पहाड़ के गाॅवों के नाप खेतों व गाॅव के मध्य में भी चीड़ आ गया है। किसी ने उगाया नहीं, हमने उगने दिया। किसी ने सोचा इसमें घास का ‘‘लूटा’’ अर्थात सूखी घास का चट्टा लगा लूंगा। किसी ने सोचा ‘‘ठंगरा’’ अर्थात एक टेक जिस पर लतादार सब्जियों व ककड़ी की बेल चढ़ेगी, इसका उपयोग होगा। किसी ने सोचा इसका दार (लकड़ी) काम आयेगी। हमारे कुछ स्वार्थ ने चीड़ के पौंधों को नाप भूमि में पनपने दिया। ग्राम सभा की वैेरान भूमि में गाॅव वालों ने लठ्ठ पंचायत बनाकर घास, लकड़ी व लीसे के लिए चीड़ को पाला। फिर वन पंचायतें बनी, लीसे से हर साल गाॅव को आमदनी व काम मिलने लगा। धीरे-2 उत्तराखण्ड का एक बड़ा भाग चीड़मय हो गया। इसके नीचे हरी-भरी झाड़ियों का पनपना बंद हो गया। कुछ जमंती भी हैं, तो आग उनकी भ्रूण हत्या कर दे रही है। चीड़ रूपी रक्त बीज ने मेरे गाॅवों को सूखा व निरस बना दिया है। रसमय जंगल अब चीड़मय हो गये हैं। पहले कई स्वर, राग अलापने वाले जंगल, अब केवल सांय-2 कर रहे हैं। सचमुच यह चीड़ रक्तबीज है। पुराणों में एक राक्षस का जिक्र है, उसका नाम रक्तबीज था। उसे वरदान प्राप्त था कि, उसके शरीर के प्रत्येक रक्तकण से एक रक्तबीज पैदा होगा। देव-असुर संग्राम में रक्तबीज हमेशा अजेय रहने लगा। अत्याचार से पीड़ित, देवताओं ने महादेव से प्रार्थना की। महादेव ने माॅ दुर्गा की प्रार्थना करने को कहा। माॅ देवताओं की प्रार्थना से खुश हुई और उनकी ओर से उन्होंने रक्तबीज को ललकारा। माॅ एक रक्तबीज का वध करती थी, तो उसके खून से हजार रक्तबीज पैदा हो जाते थे। अन्ततः माॅ के एक अंश से काली खप्परवाली का अवतार हुआ। माॅ दुर्गा ज्यों ही रक्तबीज को मारती थी, माॅ काली उसके खून को चाट जाती थी या खप्पर में भरकर पी जाती थी। अन्ततः माॅं ने रक्तबीज को नष्ट कर दिया। चीड़ रूपी रक्तबीज के लिए क्या उपाय है। इसके प्रकोप से जंगलों को राख होने से कैसे बचाया जाय। राज्य बनने से अब तक साढ़े चवालीस हजार हैक्टेयर वन क्षेत्र जले हैं। इस वर्ष आग से अकेले उत्तराखण्ड में इक्कीस सौ हैक्टेयर जंगल जले हैं। कुल इक्कीस सौ त्रेेपन आग लगने की घटनायें हुई हैं। ये सभी आकंड़े जून के प्रारम्भ तक के हैं। इनमें शेष जून में और वृद्धि हुई है। जंगल जलने से इको सैस्टम, फ्लोराफोना व औषधियों, छोटी वन सम्पत्तियों की क्षति का आंकलन हजार गुना अधिक होगा। हर वर्ष निरीह पक्षी, उनके अण्डे, बच्चे, रैंगने वाले प्राणी, जंगली जानवर क्रूर आग की भेंट चढ़ जाते हैं। एक आग जंगल विशेष की पूर्ण प्राकृतिक व्यवस्था को लगभग नष्ट कर देती है। एक आग के बाद उस वन विशेष को अपनी पूर्व प्राकृतिक अवस्था में आने में दस वर्ष का समय लगता है। वनों की आग, पर्यावरण की दुश्मन है।
चीड़ जंगल का चोकीदार था, अर्थात जंगल बाहरी क्षेत्रों में, तीव्र ढलानों पर, पत्थरों वाले हिस्से तक चीड़ रहना चाहिये था। मगर अब चीड़ हिमालयी जंगलों का स्वामी बन गया है। चीड़ के प्रसार के लिए गाॅव वाले व वन विभाग दोनों समान रूप से उत्तरदायी हैं। गाॅव के लोग कुछ लाभ की आशा में, वन विभाग के कर्मचारी हर वर्ष किये जाने वाले वनीकरण की संख्या बढ़ाने के लिए चीड़ को प्रोत्साहित करते रहे हैं। कुछ साल पहले तक चीड़ की हजारों नर्सरियां वन विभाग तैयार करता था और बरसात में कुछ अन्य प्रजाती के वृक्षों के साथ चीड़ की पौंध लगाता था। चीड़ दुष्कर परिस्थितियों में भी तेजी से पनपता है। अन्य प्रजातियों के साथ स्थिति भिन्न है, उनकी पनपत कम होने से चीड़ ही चीड़ दिखाई दे रहा है। इधर कुछ वर्षों से, चीड़ के पौंधा-रोपण के खिलाफ आई जागृति के बाद, वन विभाग ने चीड़ की नर्सरी खड़ी करना बन्द किया है और चैड़ी पत्ती की पौंध व झाड़ीदार वनस्पतियों को नर्सरी में पैदा किया जा रहा है।
चीड़ के फैलाव व चीड़ जन्य आग ने पूरे हिमालय के पर्यावरण को बड़ी क्षति पहुंचाई है। इस क्षति का विशेषज्ञ कमेटी द्वारा अध्ययन आवश्यक है। कई वन सम्पत्तियां, जड़ीबूटियां, फूल व बेरीयुक्त झाड़ियां अब गाॅवों से दूर चली गई है। हिसांलू, किलमोड़ा, मेहल, सहतूत, घिंघारू, बेडू, तिमला, तिमूर, केरूवा आदि अब गाॅव से दूर चले गये हैं। जंगलों के बाहरी इलाकों में जहां ये झाड़ियां बहुत तादाद में उगती थी, चीड़ की कृपा से प्रायः गायब हो गई हैं। जंगली जानवर व पक्षी जो इन पर निर्भर थे, अब किसानों के खेतों में आ रहे हैं। सुअर के प्रिय भोज कन्द अब जंगल से गायब हो गये हैं। चीड़ पत्तियों के सघन आच्छादन के कारण जंगलों की हरी-भरी घास भी दब जाती है। चारे के अभाव में जंगली जानवर खेतों में घुस रहे हैं। हाथी, नील गाय, बारहसिंगा, हिरण आदि अब जंगलों के बजाय किसानों के खेतों में दिखाई दे रहे हैं। उनके पीछे-2 मांसहारी बाघ आदि भी गाॅवों में आ रहे हैं। मानव, वन्य जन्तु संघर्ष इसी कारण बढ़ा है। भारत सरकार के रिकार्ड में उत्तराखण्ड में 71 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित है। वास्तव में इस 71 प्रतिशत के एक बड़े हिस्से में वनस्पति और वन नहीं हैं। उत्तराखण्ड के कुछ हिस्से हिमाच्छादित भू-भाग हैं या तीव्र ढलान हैं जहां वनस्पति का उगना सम्भव नहीं है। वास्तविक वनाच्छादित क्षेत्र का 35863 वर्ग किमी0 आरक्षित वन क्षेत्र है। लगभग 14 प्रतिशत वन पंचायतों के रूप में है अर्थात 7351 वर्ग किमी0 क्षेत्र वन पंचायत के रूप में है। 1 प्रतिशत अर्थात 156 वर्ग किमी0 क्षेत्र निजी वनों के रूप में है। हमारे राज्य में 12 हजार से कुछ अधिक वन पंचायतें हैं। ग्रामवासियों की नाप भूमि में चाहे-अनचाहे उग आये वृक्षों जिनमें चीड़ के वृक्ष भी सम्मिलित हैं, इस आंकड़े में सम्मिलित नहीं हैं। वन विभाग के अनुसार राज्य के कुल वनाच्छादित भाग के 3944 वर्ग किमी0 क्षेत्र पर चीड़ का कब्जा है। मेरे विचार में चीड़ क्षेत्र इन आंकड़ों से अधिक है। अधिकांश वन पंचायतें चीड़ क्षेत्र हैं, साथ-2 नाप खेतों में भी चीड़ हैं।
हमारे आधुनिक वन प्रबन्धन में मानवीय पक्ष शायद गौण समझा जा रहा है। अन्यथा क्या कारण है कि, आजादी से पहले और बाद के तीन दसकों तक वन विभाग व गाॅवों के मध्य प्रेममय रिश्ता था। यह रिश्ता अब ना केवल गायब हो रहा है, बल्कि गाॅवों के लोग जंगलों के प्रति उदासीन हो गये हैं या वन विरोधी हो रहे हैं। यह स्थिति पूर्णतः अस्वीकार्य है। आज जंगल की आग बुझाने लोग आगे नहीं आ रह हैं, बल्कि आग लगने की घटनाओं के स्थानीय कारण बन रहे हैं। पहले भी जंगलों में आग लगती थी, सारा इलाका आग बुझाने में सहयोग देता था। पतरोल की एक आवाज काफी होती थी। विद्यार्थी जीवन में हम लोग भी आग बुझाने में सहयोग करते थे। आज स्थानीय सहयोग लगभग विलुप्त हो गया है। आज की पीढ़ी वृक्ष व जंगल के महत्व को भली-भांती समझती है। उसे जलवायु परिवर्तन के खतरों की हमसे बेहतर जानकारी है। उसे टौक्सिक गैसों के खतरे का अच्छा ज्ञान है। प्रदूषण को नियंत्रित करने में वृक्षों की भूमिका पर हमारा ज्ञानवर्धन करने में नई पीढ़ी पूर्णतः सक्षम हैं। फिर भी जंगल की रक्षा को अब यह पीढ़ी सरकारी कर्मचारियों का दायित्व मानती है। वन प्रबन्धन अब अफसरशाही का हिस्सा बनकर रह गया है। वन अधिकारियों की नई पीढ़ी जनता, जन प्रतिनिधियों, यहां तक की सामान्य प्रशासन तंत्र से भी दूरी बनाकर रहती है। यह उनकी ट्रेनिंग का दोष या उनके वरिष्ठ अधिकारी उन्हें समुचित नेतृत्व नहीं दे पा रहे हैं, इस पर वन प्रबन्धकों को चिंतन करना चाहिये। आज का सत्य यही है कि, हमारे नई पीढ़ी के वन अधिकारी, वन व जनता के रिश्तों को जोड़ने के बजाय निरन्तर कटु बना रहे हैं। आई0ए0एस0, पी0सी0एस0 के नये चयनित अधिकारियों की तरह वन विभाग के नव चयनित अधिकारियों को क्षेत्र पंचायतों, जिला पंचायतों में 6 माह काम करना चाहिये। वन विज्ञान को सामान्य ज्ञान से माझना आवश्यक है।
उत्तराखण्ड की कुल पर्वतीय वृक्ष सम्पदा का करीब 40 प्रतिशत चीड़ वृक्ष है। जिस तेजी से चीड़ बढ़ रहा है, यह अनुपात प्रतिवर्ष चीड़ के पक्ष में बढ़ता जायेगा। चीड़ जंगल को आद्र रखने वाली वनस्पति व झाड़ियों का भी दुश्मन है। हमारे वनों में पहले माईनर वृक्ष व झाड़ीदार वृक्षों तथा झाड़ियों की उपस्थिति पर्याप्त होती थी, यह उपस्थिति निरन्तर घट रही है। कई वन क्षेत्र अब एकल चीड़ क्षेत्र बनकर रह गये हैं। वन विविधता का ह्रास राज्य की जैविकीय सम्पदा को नष्ट कर रही है। हिमालय क्षेत्र भारत की जैवकीय सम्पदा का भण्डार है। वनों की झाड़िया, घास, कंद, लघु तथा लतामय वनस्पतियाॅं, नाना प्रकार के वन्य पशुओं, पक्षियों, कीट-पतंगों, रैप्टाईल्स आदि के भोजन स्थल होते थे। इनके नष्ट होने या कम होने से यह नाजुक जीव सम्पदा विलुप्त हो रही है।
इस स्थिति के लिये चीड़ जिम्मेदार है, चीड़ अब मिश्रित वन का हिस्सा नहीं है। इस प्रजाती के बीज हवा के साथ फैलते हैं, और हर वर्ष लाखों चीड़ पौंध स्वतः उग रही है । कालान्तर में इस प्रजाती का स्वभाविक विस्तार, दूसरी प्रजातियों के विस्तार को रोक रहा है और इसी कारण हमारे मिश्रित वन, अब चीड़ वन में बदल रहे हैं। यह बदलाव पर्यावरणीय दृष्टिकोण से जिसमें वन उद्गामित जल श्रोतों का सूखना सम्मिलित है, चिन्ता का विषय है। उत्तराखण्ड के पहाड़ों में हर वर्ष बढ़ते हुये जल संकट का प्रमुख कारण मिश्रित वनों विशेषतः चैड़ी पत्ती के वृक्षों का निरन्तर घटना भी है। पहाड़ो की सत्त निरा धारायें जिन्हें गधेरा कहा जाता है, अब मात्र बरसाती बनकर रह गयी हैं।
इस स्थिति को बदल कर पहाड़ों के जंगलों को 60-70 वर्ष पुराने स्वरूप में कैसे लाया जाय, यह सबसे बड़ी चुनौती है। मैंने मुख्यमंत्री के तौर पर वन विभाग को आदेश दिया था कि, प्रत्येक ऐसे रैंज में एक सीमित क्षेत्र में चीड़ वृक्षों का पातन कर, वहां चैड़ी पत्ती के वृक्ष लगाये जाय। मैंने तत्कालिक प्रमुख मुख्य वन संरक्षक वी0सी0 चन्दोला व आई0एफ0एस0 अधिकारी श्री मनोज चन्द्रन को इस दिशा में योजना बनाकर भारत सरकार को प्रस्तुत करने के निर्देश दिये थे। मेरी इस सम्दर्भ में पर्याप्त सार्वजनिक आलोचना भी हुई। मैंने वन विभाग को सहज उगने वाले कुछ फलदार वृक्षों जैसे मेहल, काफल, आम, हरड़, आंवला के बीजों व गुठलियों का प्रतिवर्ष छिड़काव करने व जंगली जानवरों के भोजन के लिए मडुवा, झोंगरे, काले भट्ट आदि के बीजों का जंगल में छिड़काव करने के निर्देश दिये थे। मैंने वनों में उगने वाले लताओं व झाड़ियों के प्लान्ट तैयार कर उनके वार्षिक रोपण के निर्देश भी दिये। इसी के साथ ढलानों में पानी को रोकने के लिये ट्रेचेज व ढलान की घाटियों में छोटे-2 जलाशय बनाने के निर्देश दिये। अल्मोड़ा में नियुक्त एक डी0एफ0ओ0 ने इस दिशा में लैण्ड मार्क कार्य किया, विशेषतः पिरूल व स्थानीय पत्थर मिट्टी के खाल बनाने के क्षेत्र में। लैन्टाना पहाड़ी व मैदानी दोनों जंगलों का नया दुश्मन है। मैंने क्रमशः योजनाबद्ध तौर पर इसे नष्ट कर, इसके स्थान पर हाथियों के प्रिय बास, पीपल आदि के रोपण करने के भी निर्देश दिये थे।
वन सम्पदा का उत्तराखण्ड की जी0डी0पी0 संर्बधन में कोई सीधा योगदान नहीं था। मैंने वन निगम को गिरे पड़े पेड़ों के निस्तारण के लिये आदेश दिये, साथ ही प्रतिवर्ष वन निगम के वृक्ष कटाई हेतु नये क्षेत्रों का आवंटन बढ़ाने के भी निर्देश दिये। वनों का वाणिज्यक उपयोग हेतु मैंने वन निगम की एक ईकाई के रूप में इको टूरिज्म काॅरपोरेशन का गठन किया और जायका की एक गतिविधि के रूप में ईको टूरिज्म संर्बधन को जोड़ा। राज्य में निर्मित दो तितली पार्क, एक रैपटाईल पार्क अस्तित्व में आये। राज्य के बर्ड वाॅचिंग सेन्टर्स को प्रमोट करने के लिए हर वर्ष बर्ड फैस्टेवल आयोजित किये गये। हरिद्वार में अल्मोड़ा के साथ एक नई लैपर्डस सफारी स्वीकृत की गई। उद्वेश्य वन सम्पदा को सीधे-2 एक लाभदायक रोजगार मूलक सम्पदा के रूप में खड़ा करना है। इसी उद्वेश्य से नई टाईगर प्रोजेक्ट व डियर ब्रिडिंग पार्क प्रारम्भ किये गये। उद्वेश्य जंगलों से लोगों की बढ़ती दूरी को घटाना था। यह सब जंगलों में प्रतिवर्ष बढ़ते चीड़ प्रकोप का सीधा समाधान नहीं है। समाधान है, चैड़ी पत्ति के वृक्षारोपण को एक महाभियान के रूप में आगे बढ़ाना है, इस हेतु मेरी सरकार द्वारा लिये गये दो निर्णयों जिनमें प्रतिवर्ष आरक्षित वन क्षेत्र में चीड़ का पातन कर उस खाली भूमि में चैड़ी पत्ती के वृक्षों का रोपण तथा गाॅववासियों को चीड़ के वृक्ष काटने व उनकी निकासी की अनुमति देने के शासनादेश को प्रभावी रूप से लागू करना है। हमारी सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई, वृक्ष बोनस व जल बोनस स्कीम को आगे न बढ़ाकर हम अपने पांवों में कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस सरकार इन योजनाओं में अपने प्रवासीबन्धुओं को नहीं जोड़ पायी, आज की सरकार ऐसा कर सकती है। लगभग 2 वर्ष पूर्व मुझे श्री मुकुल सनवाल प्रख्यात आई0ए0एस0 नैनीताल में अचानक मिल गये, उन्होंने मुझे बताया कि वे अपने गाॅंव जा रहे हैं, अपने खेतों में देवदार का पौंधा रोपण करने। उन्होंने कहा, मैं अपने बच्चों के लिये एफ0डी0 (फिक्स डिपोजिट) खड़ा करने जा रहा हॅू। उनके शब्दों को प्रवासियों के लिए एक योजना के रूप में मेरा वृक्ष-मेरा धन योजना से जोड़ा जा सकता है। हमें चीड़ को नियंत्रित कर फिर योजनाबद्ध तौर पर घटाने का एक महा अभियान चलाने की आवश्यकता है, अन्यथा अभी तो मैं सपने में आग-2 चिल्लाया हॅू। 15-20 वर्षों में सारा उत्तराखण्ड दिन-दहाड़े आग-2 चिल्ला रहा होगा।
जय जंगल-जय उत्तराखण्ड!
(हरीश रावत)

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