बोलता है उत्तराखंड़ हम पहाड़ मे रहने वालो ने कोदा झुगरा खूब खाया और अपना अलग राज्य उत्तरखंड बनाया पर सावल आज भी वही है कि आख़िर पहाड़ को मिला क्या दुख के सिवा ,छलावे की सियासत के सिवा इनका नही कोई अपना। ओर जब जब पाहड़ के विकास की बात आती है ,जब जब पहाड़ की बात आती है सरकारे हो विधायक इनके पास किंतु परन्तु के सिवा कोई जवाब नही होता और वजह है कि आज भी पहाड़ बदहाल है और कही गांव का पुर्नवास लटका पड़ा है ये सरकार और विपक्ष मलिन बस्तियां तो हर हाल मे बचा देगे पर जब गांव गांव के लोगो की जान खतरे मे हम लगातार कहते है कि उनका पुर्नवास हो जाये सरकार तब तब सरकार के पास बहाने अनगिनत है मतलब करना कुछ नही ओर ना बोलना नही आपको बता दे कि सालो साल से पहाड़ के कही गाँव के विस्थापन और पुनर्वास की फाइल शासन में आगे नहीं बढ़ पाई। समझ लो धूल फांक रही है और ये सब इसलिए क्योकि पहाड़ से जीत कर आने वाले विधायको को कोई सरोकार ही नही देहरादून हो या मैदानी इलाकों के विधायक तो अपनी जनता के लिए सरकार से लड़ तक जाते है पर पहाड़ के विधायक सिर्फ तामास देखते है अब आप सोचो राजधानी के केवल चार विधायकों ने ऐसा दबाव बनाया कि सरकार को अवैध मलिन बस्तियों को बचाने के लिए अध्यादेश तक लाना पड़ गया
आपको बता दे कि पहाड़ के करीब 350 गांव पिछले काफी समय से आपदा की जद में हैं। खुद सरकारी विभागों के सर्वे में इन गांवों को अति संवेदनशील और रहने के लिए असुरक्षित माना गया है। उसके बावजूद इन गांवों के विस्थापन की कोई ठोस
योजना नहीं बन पाई है। सिर्फ खाना पूर्ति के लिए प्रस्ताव तैयार किए गए, ओर उसे आगे ले जाने की जगह ठंडे बस्ते मे डाल दिया गयानीति आयोग की बैठक में पिछले कई वर्षों से गांवों के पुनर्वास का मुद्दा उठाया जा रहा है। राज्य सरकार का तर्क है कि पुनर्वास और विस्थापन के लिए करीब 10 हजार करोड़ के पैकेज की जरूरत है। राज्य सरकार अपनी कमजोर
आर्थिक स्थिति और जमीन की कमी का बहाना बनाते हुए इससे बचती रही। पिछले कुछ सालों के दौरान इन गांवों की संख्या बढ़कर 400 से अधिक हो गई है।तो दूसरी तरफ चाहे कोई भी सरकार रही हो वह वोट बैंक के चलते मलिन बस्तियों पर मेहरबान रही है। पिछली हरीश रावत सरकार के समय अवैध रूप से सरकारी जमीनों पर बसी इन बस्तियों को नियमित करने का फैसला लिया गया।
नियमितीकरण की कार्रवाई भी शुरू हो गई। वहीं, मौजूदा सरकार ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कोर्ट के आदेश के बावजूद इन पर कार्रवाई नहीं की। खुद सरकार के चार विधायक गणेश जोशी, उमेश शर्मा, खजान दास और हरबंश
कपूर हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ कूद पड़े और सरकार पर अध्यादेश लाने के लिए दबाव बनाया। चार दिन में ही सरकार ने अतिक्रमणकारियों के सामने घुटने टेक दिए और कैबिनेट में अध्यादेश ले आई। जबकि इससे पहले
राजधानी में हजारों लोगों के अतिक्रमण तोड़े जा चुके हैं।अगर राज्य के मुख्यमंत्री की बात करे तो कहते है कि प्रभावित गांवों के विस्थापन का मामला बिल्कुल अलग है। वहां केवल परिवार नहीं बल्कि पशु, खेत व अन्य संपत्तियों का भी सवाल है। मलिन बस्तियों को हटाने के मामले में सरकार योजना बना रही है। प्रधानमंत्री आवास
योजना के तहत उन सबको आवास में शिफ्ट किया जाएगा। इसके अलावा लैंड बैंक बनाकर अन्य जगहों पर भी उनके लिए आवास बनाए जाएंगे। तो मंत्री प्रकाश पंत कह कहते है कि
पहाड़ के सभी संवेदनशील व असुरक्षित गांवों के विस्थापन और पुनर्वास के लिए केंद्र के सहयोग से योजना बनाई जा रही है। राजस्व विभाग के पास सात लाख हेक्टेयर भूमि है। इस पर लोगों को विस्थापित किया जा सकता है। पर्वतीय
क्षेत्रों के लोगों को उनकी मौजूदा बसावट के आस-पास ही बसाने की योजना है।
अब बोलता है उत्तराखंड़ की बाते सबकी अपनी अपनी है महज 10 हज़ार करोड़ की व्यवस्था क्या डबल इज़न की सरकार नही कर सकती है तो फिर किस बात का डबल इज़न भाई और सबसे दुखदायी बात ये है कि पहाड़ के 35 के 35 विधायक चुप चाप बैठे अगर उनकी सुनी जाए तो वो तो बोल देते है कि हमारी कोई नही सुनता तो कुछ विधायक कहते है कि नही अब 400 गाँव का पुनर्वास जल्द होना चाइए जिसके लिए वो सरकार से बात करेंगे कुल मिलाकर हम तो यही कहेगे की नेता बीजेपी को हो या कांग्रेस के इनको उन 400 गाँव मे रहने वालो की चिंता नही कास ये विपक्ष भी 400 गाँव के पुनर्वास की माग को लेकर सीएम आवास कूच करता तो कुछ समझ मे आता या फिर पहाड़ के 30 से जायदा विधायक ही मिलकर सरकार से एक साथ माग रखते पर अफसोस इस बात का है ये नेता सिर्फ नाम के नेता बनकर रह गए काम के नही